प्रकृति और पुरुष दोनों को तू शुरुआत रहित समझ । विकार और गुणों को प्रकृति से पैदा हुए जान । कार्य, करण और कर्त्तव्यों को प्रकृति ही पैदा करती है। पुरुष सुखों और दुखों को भोगने वाला है। प्रकृति में स्थित पुरुष, प्रकृति से पैदा हुए गुणों को भोगता है। गुणों में लगाव रखने के कारण ही, अच्छी बुरी योनियों में इसके जन्म लेने के कारण बनते हैं। पुरुष ही देखने वाला, अनुमति देने वाला, भरण करने वाला, भोक्ता और शरीर का स्वामी (महेश्वर) है। पुरुष को ही आपे का परम कहते हैं। देह में रहते हुए भी यह देह से पराया है।
जो इस प्रकार से पुरुष और प्रकृति को गुणों सहित पहचानता है, वह सदैव वर्तमान में रहता है और फिर से जन्म नहीं लेता ।
कोई ध्यान से, कोई सांख्य से, तो कोई योग से और कोई कर्म से जुड़कर, अपने आप, अपने में परम आपे को देख लेता है। कई अन्य ऐसे न जान कर, परन्तु दूसरों से सुनकर ही उपासना करते हैं। वे लोग सुनकर आचरण करने से भी, मृत्यु के पार चले जाते हैं।