मान्य होने, दिखावे और हिंसा जैसी सोच को हटाकर, सहनशीलता और सरलता को अपना कर, आचार्यों के पास बैठकर, स्वच्छ होकर और अपने को अनुशासित करके, मन को स्थिर करके, इंद्रिय विषयों से ललक और अंहकार को हटाकर, जन्म-बुढ़ापे-मृत्यु के दुख कारक दोषों को सूक्ष्मता से देखते हुए, अपेक्षाओं को हटाकर, पुत्र, पत्नी व घर में रहने वाले अन्य सभी को स्वतंत्र अंग मानते हुए, मनभावन मिलने या न मिलने पर चित्त में लगातार सम भाव बनाये हुए भीड़-भाड़ से परे एकांत में स्थित होकर, न भटकने वाले भक्ति भाव से, मुझ में एकाग्रता से जुड़कर, 10 तत्वज्ञान से पहचानने के लिए, नियमित अपने आपे का अध्ययन कर। ऐसे अभ्यास से होने वाला ही ज्ञान है, बाकी तो सब अज्ञान ही कहा गया है।