श्रीमद्भगवद्गीता

प्रकृति और पुरुष

प्रकृति और पुरुष दोनों को तू शुरुआत रहित समझ । विकार और गुणों को प्रकृति से पैदा हुए जान ।कार्य, करण और कर्त्तव्यों को प्रकृति ही पैदा करती है। पुरुष सुखों और दुखों को भोगने वाला है।प्रकृति में स्थित पुरुष, प्रकृति से पैदा हुए गुणों को भोगता है। गुणों में लगाव रखने के कारण ही, अच्छी बुरी योनियों में इसके जन्म लेने के कारण बनते हैं।पुरुष ही देखने वाला, अनुमति देने वाला, भरण करने वाला, भोक्ता और शरीर का स्वामी (महेश्वर) है। पुरुष को ही आपे का परम कहते हैं। देह में रहते हुए भी यह देह से पराया है। जो इस प्रकार से पुरुष और प्रकृति को गुणों सहित पहचानता है, वह सदैव वर्तमान में रहता है और फिर से जन्म नहीं लेता । कोई ध्यान से, कोई सांख्य से, तो कोई योग से और कोई कर्म से जुड़कर, अपने आप, अपने में परम आपे को देख लेता है।कई अन्य ऐसे न जान कर, परन्तु दूसरोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं। वे लोग सुनकर आचरण करने से भी, मृत्यु के पार चले जाते हैं।

परम ब्रह्म क्या है

जो जानने योग्य है उसे कहता हूँ। जिसे जानने से अमरता प्राप्त होती है। अनादि परम ब्रह्म न तो सत् कहा गया है न ही असत् ।सब ओर हाथों, पैरों, आखों, सिरों, मुखों और कानों वाला वह, संसार में सब जगह सब कुछ व्याप्त करके स्थित है। वह इंद्रियों से रहित है परन्तु सब इंद्रियों और गुणों का आभास करता है। अपेक्षा रहित है परन्तु सभी का धारक व पोषक है। गुणों से रहित है परन्तु गुणों को भोगने वाला है। सभी प्राणियों के बाहर भी है और भीतर भी । अचल भी है और चल भी रहा है। वह दूर से दूर तक भी है और पास से पास में भी है। सूक्ष्म होने के कारण जानने में नहीं आता ।वह न बंटने वाला होते हुए भी प्राणियों में बंट कर स्थित है । जानने योग्य, सभी प्राणियों को पैदा करने वाला, भरता-पोषक होकर भी वह सबको ग्रस लेने वाला है।उसे अंधकार से परे सब प्रकाशों का प्रकाश कहा गया है। वही ज्ञान है, जानने योग्य है, सारे ज्ञान का अंतिम पड़ाव भी है और वह सभी के हृदय में विराजमान है। 7 यह क्षेत्र, ज्ञान और जानने योग्य को संक्षेप में कहा। इसे जानकर मेरा भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है।

आपे के अध्ययन से होने वाला ज्ञान

मान्य होने, दिखावे और हिंसा जैसी सोच को हटाकर, सहनशीलता और सरलता को अपना कर, आचार्यों के पास बैठकर, स्वच्छ होकर और अपने को अनुशासित करके, मन को स्थिर करके, इंद्रिय विषयों से ललक और अंहकार को हटाकर, जन्म-बुढ़ापे-मृत्यु के दुख कारक दोषों को सूक्ष्मता से देखते हुए, अपेक्षाओं को हटाकर, पुत्र,पत्नी व घर में रहने वाले अन्य सभी को स्वतंत्र अंग मानते हुए, मनभावन मिलने या न मिलने पर चित्त में लगातार सम भाव बनाये हुए भीड़-भाड़ से परे एकांत में स्थित होकर, न भटकने वाले भक्ति भाव से, मुझ में एकाग्रता से जुड़कर, 10 तत्वज्ञान से पहचानने के लिए, नियमित अपने आपे का अध्ययन कर। ऐसे अभ्यास से होने वाला ही ज्ञान है, बाकी तो सब अज्ञान ही कहा गया है।

शरीर क्या है

भगवान बोले, अर्जुन ! इस शरीर को क्षेत्र कहते हैं। जो इसे जान रहा है तत्वज्ञानी उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं। सब क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ तू मुझे ही समझ और जो क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है, मैं मानता हूँ कि वही ज्ञान है।जो यह क्षेत्र है और जैसा यह है, जिन विकारों वाला है, जिससे यह होता है और जो उसके प्रभाव हैं, वह सब संक्षेप में मुझ से सुन। ऋषियों ने बहुत प्रकार के छंदों से गाकर और ब्रह्म सूत्रों में तर्कपूर्ण कारणों से भी उसे सुनिश्चित किया है। मूल प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, पंच तत्व, दस इंद्रियां और इन में पाँच ज्ञान इंद्रियों के विषयों में विचरने वाला एक मन है।' इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख के प्रहारों के साथ, चेतना को धारण किये हुए क्षेत्र को, ऐसे संक्षेप में कहा गया है "