कर्मों को प्रशस्त करने का रहस्य
भगवान बोले, इस योग को मैंने अमर विवस्वान को कहा, विवस्वान ने मनु और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया। ऐसे परम्परा से ही इसे राज ऋषियों ने जाना। अर्जुन, समय बीतने के साथ इस लोक में योग लुप्त हो गया। 2 क्योंकि यह उत्तम रहस्य है और तू मेरा भक्त भी है, सखा भी। इसलिए वही पुरातन योग आज तुझ से कहता हूँ।
अर्जुन बोला, आपका जन्म तो हाल ही में हुआ है और विवस्वान का जन्म बहुत पहले का है। फिर आप ने विवस्वान को यह ज्ञान कब दिया ?4 भगवान बोले, अर्जुन ! मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं और तेरे भी। मैं सब को जानता हूँ पर तू नहीं जानता। अजन्मा और कभी न खत्म होने वाला, सब प्राणियों का ईश्वर होते हुए, मैं अपनी प्रकृति को वश में करके, अपनी माया से अवतरित होता हूँ। "
अर्जुन! जब-जब धर्म घटने लगता है और अधर्म बढ़ने लगता है तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।" साधकों के संताप को हटाने, दुष्करों का नाश करने और धर्म को स्थापित करने के लिए मैं समय-समय पर अवतरित होता हूँ। 8 अर्जुन ! मेरे इस दिव्य जन्म और कर्म को जो तत्व से जान लेता है, वो शरीर छोड़ने के बाद पुनःजन्म न लेकर, मुझे प्राप्त होता है।" लालसा, डर और गुस्से को पीछे छोड़कर, मन को में मुझ रमा कर, मेरी शरण में, बहुत से लोग ज्ञान रूपी तप से पवित्र हो कर मेरे भाव तक आ जाते हैं। 10 जो जिस भाव से मेरी ओर आता है मैं उसे वैसा ही बना देता हूँ। अर्जुन, हर मार्ग से मनुष्य मेरी ओर ही आता है।"
स्व धर्म से भ्रमित हूँ क्या करूं मैं? शोक नहीं करते - स्व धर्म से नहीं हिलते, बुद्धि भटकने के कारण हटाओ, कर्म करना ही तेरे बस में, बुद्धि को स्थिर कर, स्थिर-बुद्धि व्यक्ति के लक्षण, गुस्से, भ्रम और बुद्धि नष्ट होने से होता नाश।
सिद्धि को पा कर ब्रह्म को कैसे प्राप्त होते हैं?, यह मुझ से समझ अर्जुन, ज्ञान की इस परम निष्ठा के बारे संक्षेप में सुन बुद्धि को शुद्ध करके, स्वयं को अनुशासित करने की धारणा से युक्त कर के, शब्दादि इंद्रिय विषयों में ललक व घृणा को छोड़कर एकांत में अभ्यास का नियम बना कर, भोजन को नियमित करके, वाणी, शरीर और मन को अनुशासित करके, नियमित ध्यान करते हुए, अहंकार, ताकत, गर्व, हवस, गुस्से और ईर्ष्या जैसे भावों को परे हटाकर, 'मेरा है' का भाव हटाकार, कोई अपेक्षा न रखने से, शांत रहने पर ब्रह्म से एकाकार होने का आभास होने लगता है।
ब्रह्म में स्थित आनंदित आपा, न तो शोक करता है, न ही किसी से कोई अपेक्षा रखता है। सभी प्राणियों से सम भाव रखने वाला वह मेरी परम भक्ति को पा जाता है। भक्ति भाव में वह मुझे, जो मैं हूँ और जहाँ तक हूँ, को तत्व से जान जाता है। फिर मुझे तत्व से जानने के बाद मुझ में ही प्रवेश कर जाता है। मेरे आश्रय में मुझे सब कर्मों को समर्पित करते हुए, मेरी कृपा से शाश्वत और अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।
निश्चय क्या करेगा? स्व भाव करवाएगा तुझ से कर्म ! तू सब कर्मों को चित्त से मुझ में छोड़ कर, बुद्धि को मेरे आश्रय में करके, लगातार मुझ में चित्त रखने वाला हो जा। मुझ में चित्त रख कर, मेरे प्रसाद से सब दुर्गति से तर जाएगा और यदि तू अहंकार के कारण नहीं सुनेगा तो तेरा नाश हो जाएगा।
तू अहंकार के आश्रय में जो मान कर बैठा है कि लड़ाई नहीं करूंगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है। तेरी प्रकृति तुझे लड़ाई में धकेल ही देगी। अर्जुन, तू भ्रम के कारण जिसे करना नहीं चाहता, स्व भाव से पैदा हुए अपने कर्म से बंधा हुआ, तू विवश होकर उसको भी करेगा
भगवान बोले, जो कर्म फल पर आश्रित न होकर कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी, न कि आग (गृहस्थ जीवन) और क्रियाओं को छोड़ने वाला।। जिसे संन्यास कहते हैं उसी को योग जान अर्जुन। क्योंकि संकल्पों से संन्यास लिए बिना कोई योगी नहीं होता। मननशील के लिए योग स्थित होने के साधन को कर्म कहते हैं। योग में स्थित रहने का साधन सम कहलाता है। क्योंकि जब न तो इंद्रियों के विषयों से, न ही कर्मों से कोई अपेक्षा हो तब, सब संकल्पों से भी संन्यासी हुए को योग स्थित कहते हैं।'
अपना उद्धार अपने आप करे, न कि खुद को अवसाद में गिराए। क्योंकि अपना आपा ही दोस्त है और अपना आपा ही दुश्मन भी। जिसने अपने आपे को जीत लिया है, उसका आपा दोस्त है, नहीं तो वह अपने आपे से ही दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहा है।"
अर्जुन बोला, कर्मों से संन्यास की और फिर कर्म से योग (जुड़ने) की प्रशंसा करते हो कृष्ण! इन दोनों में से मेरे लिए जो एक श्रेयकारी है उसे कहिए। भगवान बोले, कर्म संन्यास और कर्म योग दोनों ही श्रेयकारी हैं, परंतु इनमें कर्म संन्यास से कर्म योग बेहतर है। जो लगातार न तो द्वेषी है। और न ही आकांक्षी, उसे संन्यासी ही जान। क्योंकि द्वंद्व से छूटा हुआ, बंधनों से आसानी से छूट जाता है।
बालक बुद्धि वाले सांख्य और योग को अलग-अलग कहते हैं, विद्वान नहीं। वो एक में भी सही से लग कर दोनों का फल पा लेते हैं। सांख्यिक जहाँ तक पहुँचते हैं योगी भी वहीं पहुंचते हैं। जो सांख्य और योग को एक देखता है, उसी को दिखता है । परन्तु अर्जुन ! बिना योग के संन्यास को पाना मुश्किल है। योग में स्थित मनन करने वाला ब्रह्म को बिना किसी देरी के पा जाता है। योग स्थित हुआ अपने आपको शुद्ध रखते हुए, अपने आपे व अपनी इंद्रियों को जीत कर, सभी प्राणियों के आपे से अपने आप को एकाकार करके, बर्ताव करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
'मैं जरा सा भी करने वाला नहीं हूँ', यह मानते हुए तत्वज्ञानी, देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, खाते, चलते, सपने देखते, सांस लेते, बोलते, मल त्यागते, स्वीकार करते, पलकें खोलते बंद करते हुए भी, यही समझता है कि इंद्रियां ही इन्द्रियों के विषयों बर्ताव कर रही हैं। अपने कर्म ब्रह्म को अर्पण करके, जो अपेक्षा को हटाकर उन्हें करता है, वो पापों में वैसे ही लिप्त नहीं होता जैसे कमल के पत्ते जल में।" शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों को भी पूरी लय से लगाकर, अपेक्षाएँ छोड़कर, योगी अपने शुद्धिकरण के लिए ही कर्म करता है।" वह कर्मों के फलों को छोड़ कर परम निष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है अन्य सभी कामनाओं के कारण फल की अपेक्षा में बंधे रहते हैं। जो सब कर्मफलों को मन से छोड़कर अपने को वश में किया हुआ है, वही कुछ न करता हुआ, न ही करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीर रूपी नगर में सुख से रहता है।
भगवान बोले, मेरी परम बात को फिर से सुन अर्जुन। मुझ से अपार स्नेह रखने वाले तुझ से, तेरे हित की कामना से मैं फिर से कहता हूँ ।' मेरे होने को न तो देवता जानते हैं न ही महर्षि, क्योंकि सभी देवताओं और महर्षियों का मूल भी मैं ही हूँ। जो मुझे जन्म रहित, शुरुआत रहित और लोकों का महा ईश्वर जानता है, मनुष्यों में मूढ़ता से मुक्त हुआ वह सब पापों से मुक्त है।
बुद्धि, ज्ञान, स्पष्टता, क्षमा, सच, इंद्रिय अनुशासन, सम स्थिति, सुख-दुःख, होना या न होना, डर- निडर, अहिंसा, समता, पूर्ति, तप, दान, यश-अपयश जैसे अलग-अलग भाव प्राणियों में मुझ से ही होते हैं।
सप्त महर्षि, उनसे भी पहले के चार और मनु मेरे ही मन से पैदा हुए। उन से इस जगत में सारी प्रजा है । " जो तत्व ज्ञान से मेरी इस सिद्धि और योग को जानता है, वह न हिलने वाली योग स्थिति से जुड़ा है, इसमें कोई संदेह नहीं।
मैं सबकी उत्पत्ति का कारण हूँ और सब मुझ से ही प्रेरित होते हैं। इस मान्यता से भाव समन्वय करके बुद्धिमान मेरी उपासना करते हैं। जो मुझ में चित्त और प्राणों को रखकर, मेरे कथन को कहकर, एक दूसरे को मेरा बोध करवाने से तृप्त होकर, मुझ में रमे रहते हैं। " प्रेम से लगातार जुड़े उन उपासको को मैं उस बुद्धि से जोड़ देता हूँ जिस से वे मुझे प्राप्त होते हैं। उन पर अनुकम्पा के लिए उनके अपने भाव में स्थित मैं ही, अज्ञान से उपजी उनकी अस्पष्टता को, ज्ञान के दीप की स्पष्टता से मैं नष्ट कर देता हूँ।