स्व धर्म से भ्रमित हूँ क्या करूं मैं? शोक नहीं करते - स्व धर्म से नहीं हिलते, बुद्धि भटकने के कारण हटाओ, कर्म करना ही तेरे बस में, बुद्धि को स्थिर कर, स्थिर-बुद्धि व्यक्ति के लक्षण, गुस्से, भ्रम और बुद्धि नष्ट होने से होता नाश।
स्व धर्म से भ्रमित हूँ क्या करूं मैं? संजय बोला, कमजोर पड़े, आँखों में आँसू भरे और अवसादित (मन गिराए) अर्जुन को कृष्ण ने कहा । 'अर्जुन, ऐसे विकट समय में तू इस कशमकश में कहाँ फँस गया ? क्योंकि आर्य तो इसे नहीं अपनाते। न ये स्वर्ग दे, न ही कीर्ति । तू नपुंसकता को मत पा, तेरे लिए यह ठीक नहीं। ओ परमतपी! हृदय की इस छोटी सी कमजोरी को हटाकर खड़ा हो जा।
अर्जुन बोला, पितामह भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीयों को मैं तीरों से कैसे भेद दूँ कृष्ण ? गुरुजनों जैसे महानुभावों को मारने से तो अच्छा है कि मैं भीख मांगकर खा लूँ। क्योंकि इन गुरुजनों को मारकर भी तो यहाँ खून से सने धन और कामनाओं के भोग ही तो भोगूँगा । नहीं पता हमें क्या करना चाहिये, हमारे लिए क्या सही है? हम जीतेंगे या वो जीतेंगे ? जिनको मारकर हम ही न जीना चाहें वही धार्तराष्ट्री सामने आकर खड़े हो गए हैं। "
ये कमजोरी दोष बनकर मेरे स्व भाव को मार रही है। । स्व धर्म के प्रति भ्रमित हुए चित्त से मैं आपको पूछता हूँ, जो मेरे लिए निश्चित रूप से श्रेयकारी हो, मुझे सिखाओ, शिष्य के जैसे मैं आपकी शरण में हूँ। क्योंकि इंद्रियों को सुखाये जा रहे मेरे इस शोक को हटाने का, मुझे कोई उपाय नहीं दिख रहा। वो सारी पृथ्वी का दुश्मन रहित राजपाट, सुख समृद्धि या फिर चाहे देवलोक का साम्राज्य ही क्यों न हो !" अंतर्यामी कृष्ण को,