कर्म सिद्धि से ब्रह्म प्राप्ति

सिद्धि को पा कर ब्रह्म को कैसे प्राप्त होते हैं?, यह मुझ से समझ अर्जुन, ज्ञान की इस परम निष्ठा के बारे संक्षेप में सुन बुद्धि को शुद्ध करके, स्वयं को अनुशासित करने की धारणा से युक्त कर के, शब्दादि इंद्रिय विषयों में ललक व घृणा को छोड़कर एकांत में अभ्यास का नियम बना कर, भोजन को नियमित करके, वाणी, शरीर और मन को अनुशासित करके, नियमित ध्यान करते हुए, अहंकार, ताकत, गर्व, हवस, गुस्से और ईर्ष्या जैसे भावों को परे हटाकर, 'मेरा है' का भाव हटाकार, कोई अपेक्षा न रखने से, शांत रहने पर ब्रह्म से एकाकार होने का आभास होने लगता है।

ब्रह्म में स्थित आनंदित आपा, न तो शोक करता है, न ही किसी से कोई अपेक्षा रखता है। सभी प्राणियों से सम भाव रखने वाला वह मेरी परम भक्ति को पा जाता है। भक्ति भाव में वह मुझे, जो मैं हूँ और जहाँ तक हूँ, को तत्व से जान जाता है। फिर मुझे तत्व से जानने के बाद मुझ में ही प्रवेश कर जाता है। मेरे आश्रय में मुझे सब कर्मों को समर्पित करते हुए, मेरी कृपा से शाश्वत और अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।

निश्चय क्या करेगा? स्व भाव करवाएगा तुझ से कर्म ! तू सब कर्मों को चित्त से मुझ में छोड़ कर, बुद्धि को मेरे आश्रय में करके, लगातार मुझ में चित्त रखने वाला हो जा। मुझ में चित्त रख कर, मेरे प्रसाद से सब दुर्गति से तर जाएगा और यदि तू अहंकार के कारण नहीं सुनेगा तो तेरा नाश हो जाएगा।

तू अहंकार के आश्रय में जो मान कर बैठा है कि लड़ाई नहीं करूंगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है। तेरी प्रकृति तुझे लड़ाई में धकेल ही देगी। अर्जुन, तू भ्रम के कारण जिसे करना नहीं चाहता, स्व भाव से पैदा हुए अपने कर्म से बंधा हुआ, तू विवश होकर उसको भी करेगा