मुझ में रमे को देता मैं स्पष्टता

भगवान बोले, मेरी परम बात को फिर से सुन अर्जुन। मुझ से अपार स्नेह रखने वाले तुझ से, तेरे हित की कामना से मैं फिर से कहता हूँ ।' मेरे होने को न तो देवता जानते हैं न ही महर्षि, क्योंकि सभी देवताओं और महर्षियों का मूल भी मैं ही हूँ। जो मुझे जन्म रहित, शुरुआत रहित और लोकों का महा ईश्वर जानता है, मनुष्यों में मूढ़ता से मुक्त हुआ वह सब पापों से मुक्त है।

  बुद्धि, ज्ञान, स्पष्टता, क्षमा, सच, इंद्रिय अनुशासन, सम स्थिति, सुख-दुःख, होना या न होना, डर- निडर, अहिंसा, समता, पूर्ति, तप, दान, यश-अपयश जैसे अलग-अलग भाव प्राणियों में मुझ से ही होते हैं।

  सप्त महर्षि, उनसे भी पहले के चार और मनु मेरे ही मन से पैदा हुए। उन से इस जगत में सारी प्रजा है । " जो तत्व ज्ञान से मेरी इस सिद्धि और योग को जानता है, वह न हिलने वाली योग स्थिति से जुड़ा है, इसमें कोई संदेह नहीं।

  मैं सबकी उत्पत्ति का कारण हूँ और सब मुझ से ही प्रेरित होते हैं। इस मान्यता से भाव समन्वय करके बुद्धिमान मेरी उपासना करते हैं। जो मुझ में चित्त और प्राणों को रखकर, मेरे कथन को कहकर, एक दूसरे को मेरा बोध करवाने से तृप्त होकर, मुझ में रमे रहते हैं। " प्रेम से लगातार जुड़े उन उपासको को मैं उस बुद्धि से जोड़ देता हूँ जिस से वे मुझे प्राप्त होते हैं। उन पर अनुकम्पा के लिए उनके अपने भाव में स्थित मैं ही, अज्ञान से उपजी उनकी अस्पष्टता को, ज्ञान के दीप की स्पष्टता से मैं नष्ट कर देता हूँ।