अर्जुन बोला, कर्मों से संन्यास की और फिर कर्म से योग (जुड़ने) की प्रशंसा करते हो कृष्ण! इन दोनों में से मेरे लिए जो एक श्रेयकारी है उसे कहिए। भगवान बोले, कर्म संन्यास और कर्म योग दोनों ही श्रेयकारी हैं, परंतु इनमें कर्म संन्यास से कर्म योग बेहतर है। जो लगातार न तो द्वेषी है। और न ही आकांक्षी, उसे संन्यासी ही जान। क्योंकि द्वंद्व से छूटा हुआ, बंधनों से आसानी से छूट जाता है।
बालक बुद्धि वाले सांख्य और योग को अलग-अलग कहते हैं, विद्वान नहीं। वो एक में भी सही से लग कर दोनों का फल पा लेते हैं। सांख्यिक जहाँ तक पहुँचते हैं योगी भी वहीं पहुंचते हैं। जो सांख्य और योग को एक देखता है, उसी को दिखता है । परन्तु अर्जुन ! बिना योग के संन्यास को पाना मुश्किल है। योग में स्थित मनन करने वाला ब्रह्म को बिना किसी देरी के पा जाता है। योग स्थित हुआ अपने आपको शुद्ध रखते हुए, अपने आपे व अपनी इंद्रियों को जीत कर, सभी प्राणियों के आपे से अपने आप को एकाकार करके, बर्ताव करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
'मैं जरा सा भी करने वाला नहीं हूँ', यह मानते हुए तत्वज्ञानी, देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, खाते, चलते, सपने देखते, सांस लेते, बोलते, मल त्यागते, स्वीकार करते, पलकें खोलते बंद करते हुए भी, यही समझता है कि इंद्रियां ही इन्द्रियों के विषयों बर्ताव कर रही हैं। अपने कर्म ब्रह्म को अर्पण करके, जो अपेक्षा को हटाकर उन्हें करता है, वो पापों में वैसे ही लिप्त नहीं होता जैसे कमल के पत्ते जल में।" शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों को भी पूरी लय से लगाकर, अपेक्षाएँ छोड़कर, योगी अपने शुद्धिकरण के लिए ही कर्म करता है।" वह कर्मों के फलों को छोड़ कर परम निष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है अन्य सभी कामनाओं के कारण फल की अपेक्षा में बंधे रहते हैं। जो सब कर्मफलों को मन से छोड़कर अपने को वश में किया हुआ है, वही कुछ न करता हुआ, न ही करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीर रूपी नगर में सुख से रहता है।