भगवान बोले, जो कर्म फल पर आश्रित न होकर कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी, न कि आग (गृहस्थ जीवन) और क्रियाओं को छोड़ने वाला।। जिसे संन्यास कहते हैं उसी को योग जान अर्जुन। क्योंकि संकल्पों से संन्यास लिए बिना कोई योगी नहीं होता। मननशील के लिए योग स्थित होने के साधन को कर्म कहते हैं। योग में स्थित रहने का साधन सम कहलाता है। क्योंकि जब न तो इंद्रियों के विषयों से, न ही कर्मों से कोई अपेक्षा हो तब, सब संकल्पों से भी संन्यासी हुए को योग स्थित कहते हैं।'
अपना उद्धार अपने आप करे, न कि खुद को अवसाद में गिराए। क्योंकि अपना आपा ही दोस्त है और अपना आपा ही दुश्मन भी। जिसने अपने आपे को जीत लिया है, उसका आपा दोस्त है, नहीं तो वह अपने आपे से ही दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहा है।"